Friday 7 August 2015

बलात्कार

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नहीं दिखा तुम्हे मेरा दर्द,
मेरी पीड़ा और मेरा डर 
मेरे घुटते शब्दों के साथ 
मेरा मरता वजूद
करते गए तुम अनदेखा । 
दिखे तुम्हे सिर्फ मेरे दो उभार 
जो  सींचते है सृष्टि का आधार 
पर तुम्हारे लिए तो वो थे 
गुलाब के फूल ,मखमल में लपेटे 
रौंदते गए जिसे तुम ,
और दिखा तुम्हे 
अपनी मर्दानगी साबित करने का द्वार 
वो द्वार जो नयी संरचना को जन्म देती है 
उसमे तुम रचते गए 
कलंक, घृणा ,मद |
तिस पर भी जी नहीं भरा 
तो नोच खसोट दिया मेरा जिस्म ,
रक्त रंजीत मेरा शरीर,आत्मा और अस्तित्व 
पड़े रहे निढाल,
और अट्टहास करता शब्द ''बलात्कार '' 

स्वाति वल्लभा राज 

1 comment:

  1. मैं तो दंग हूं चित्र देख कर। सब कुछ बयां कर रही है।

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