निर्भया काण्ड की बरसी । बहुत से लोग काफी कुछ कह रहे हैं । नाबालिग की रिहाई , १० हजार रूपये , दर्जी दूकान की व्यवस्था ये सब एक अलग विषय है बहस का । मगर कितने लोगों ने इस विषय को गंभीरता से सोच कर सामाजिक तौर पर ना सही व्यक्तिगत तौर पर सोच बदलने का काम किया है ? क्या कदम उठाये हैं कि एक लिंग विशेष के प्रति जो सोच और माहौल है उसे बदलने की कोशिश की है ?
कुछ सवालों पर आत्म मंथन से हम समझ सकते हैं कि हमने कैसी श्रद्धांजलि दी है और फिर कोई निर्भया ना हो इसलिए हमने क्या किया है
१.लिंग और योनि की पूजा करते हैं मगर क्या अपने टीनेजर बच्चों को सेक्स एजुकेशन के सम्बन्ध में बताना जरुरी समझे हैं? सेक्स एजुकेशन का कत्तई मतलब नहीं कि सेक्स करते कैसे हैं , ये बताना है ।
२. अगर पत्नी का मन ना हो तो क्या हम वाकई उससे शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर दबाव नहीं डालते ?
३. अश्लील गाने जो सार्वजनिक स्थानों पर जोर जोर से बजाए जाते हैं कितनो ने कोसने के बजाय वहाँ जाकर खिलाफत की ?
४. क्या हमने अपने बेटों से बात कर उनके विचार जानने की कोशिश कि की वो इन सारे विषयों को किस दृष्टिकोण से देखते हैं?
५. क्या खुद हमने किसी लड़की / औरत से बात करते वक्त या चैट करते वक़्त हर मर्यादा का ख्याल रखा और गलती से भी '' टाइम पास '' का या '' चांस '' लेने का नहीं सोचा ?
जड़ें सदियों से चली आ रही सोच और परम्पराओं में है। कितनी ऐसी परम्पराएँ हैं जो लड़कों के नाम पर है? छोटी बातें नज़र अंदाज़ कर देना गलत है। कोई सीधे बलात्कार नहीं कर देता । जब उसने किसी लड़की को ये कहा होगा की '' २८ से ३६ कर दूँगा '' तो क्या हुवा होगा ?
किसी के मांग में सिंदूर देख कर जब किसी ने ये कहा होगा ''ये प्लाट बिकाऊ नहीं है । अरे यार इसका तो भूमि पूजन हो गया है'' तो क्या हुवा होगा ? किसी लड़के ने जब किसी लड़की को छेड़ा होगा तो क्या हुवा होगा ? जब कोई अपने घर में ही लड़के लड़कियों का भेद भाव देखता होगा की कुछ भी हो लड़कियों को बोलने नहीं दिया जाता तो उसकी मानसिकता क्या हुयी होगी ?
जड़ें खोदें तनों को काटने से क्या होगा
स्वाति वल्लभा राज